गीता दर्शन ( अध्याय 11)




गीता दर्शन ( अध्याय 11)

प्रवचन 6

क्रोध क्या है?

अस्थाई पागलपन है।

ज़रा देर के लिए आप पागल हो गए।

फिर संभाल लेते हैं अपने को। 

बड़ी अच्छी बात है कि फिर संभाल लेते हैं।

लेकिन वो जो घड़ी भर में प्रकट होता है, उसे कभी आपने ख्याल किया है?

कि क्या होता है?

ये जो विक्षिप्तता है वो इस दृष्टि का परिणाम है कि हम कुछ कर सकते हैं।

हम जिंदगी को बदल सकते हैं। 

हम जिंदगी वैसी बनाना चाहते हैं, वैसी जिंदगी बन सकती है। 

कोई नियति नही है। 

भविष्य मुक्त है।

और हमारे हाथ में है।

मैं नही कहता कि ये गलत है।

ये हो सकता है।

पश्चिम में करके देखा है।

हमने भी बहुत बार करके देखा है।

 लेकिन इसका परिणाम ये होता है कि भविष्य तो हमारे हाथ में थोड़ा बहुत चलने लगता है,

लेकिन हम बिल्कुल पटरी से उतर जाते हैं।

भविष्य को चलाने में आदमी अस्त व्यस्त हो जाता है।

इसलिए भविष्य को छोड़ दो परमात्मा पर।

वो अपरिहार्य है।

जो होना है, वो होके रहेगा।

आप बीच में कुछ भी नही हैं।

इसका परिणाम ये होता है की आप तत्क्षण मुक्त हो गए भविष्य से। अब कोई चिंता ना रही। सुख आएगा कि दुख आएगा। अच्छा होगा कि बुरा होगा। बचेंगे कि नही बचेंगे।

अब आपके हाथ में बात नही है।


आप वर्तमान में जी सकते हैं,

अभी और यहीं।



लेकिन आदमी वर्तमान में जी नही सकता जब तक उसे ये ख्याल है कि 

भविष्य बनाया जा सकता है।


एक बात मान के चले,

अगर आपको वस्तुएं इकठी करनी है तो नियति मानके चले , आत्मा खो जाएगी।


एक उपाय है कि भविष्य नियत है 

तो चिंता ना करें।

आप अपनी आत्मा को सरलता से उपलब्ध कर सकेंगे।


इसलिए अर्जुन ने जो देखा कृष्ण के विराट रूप में,

अभी योद्धा मरे नहीं हैं।

अभी भीष्म पितामह जीवित हैं।

अभी द्रोणाचार्य पूरी तरह जीवित हैं। 

अभी हारे भी नही हैं।

अभी मिटे भी नही हैं।

अभी तो युद्ध शुरू भी नहीं हुआ है।

और अर्जुन ने देखा_

कृष्ण के दांतों में दबे हुए।

पिसते हुए, मरते हुए।

समाप्त होते हुए।

भविष्य उसे दिखाई पड़ा।

कृष्ण उसे यहीं कहना चाहते थे कि 

तू नाहक परेशान हो रहा है

 कि ऐसा करूं ,

कि वैसा करूं।

जो होना है वो होगा।

तेरी परेशानी अकारण है।

असंगत है।

कृष्ण यही समझा रहे थे कि

 जो होना है वो हो ही चुका है।

तू चिंता छोड़।

कहानी लिखी जा चुकी है।

नाटक का अंत तय हो चुका है। 

तू सिर्फ पात्र है।

तू लेखक नही है।

लिखने वाला लिख चुका है।

नतीजा तय हो चुका है।

तुझे सिर्फ काम पूरा करना है।


जो बेचैन नही, अशांत नही

जो हो रहा है , होने देता है।

 उसके भीतर परम शांति के वर्तुल बन जाते हैं ।

और उसकी परम स्त्रोत तक 

यात्रा हो जाती है।

अतीत का विसर्जन

ओशो एक ध्यान विधि


तुम अपने अतीत को याद कर रहे हो।

किसी भी घटना को तुम्हारा बचपन,तुम्हारा प्रेम- संबंध,तुम्हारे पिता या माता की मृत्यु,

कुछ भी हो सकता है।

उसे देखो, लेकिन उससे एकात्म मत हाओ।

उसे इस तरह याद करो जैसे वह किसी और के जीवन में घटा हो।

और जब यह घटना फिर से दिखाई जा रही हो मन के पर्दे पर,

फिर से यह चलचित्र चल रहा हो उस पर ध्यान दो।

सर्जक,साक्षी और तटस्थ बने रहो यदि तुम अपना प्रेम प्रसंग स्मरण कर रहे हो अपने प्रेम की पहली घटना,

तो तुम अपनी प्रेमिका के साथ स्मृति के परदे पर प्रकट होंगे।

तुम्हारा अतीत का रूप प्रेमिका के साथ ऊपर आएगा।

अन्यथा तुम उसे याद नहीं कर सकोगे।

अपने इस अतीत के रूप से भी तादात्म्य हटा लो। पूरी घटना को इसे देखो- मानो कोई दूसरा पुरुष किसी दूसरी स्त्री को प्रेम कर रहा है,

इसकी पूरी घटना से तुम्हारा कुछ लेना देना नहीं है तुम बस देखने वाले हो,दृष्टा हो।


                         - ओशो"प्रेम संगीत"

कुछ भी ध्यान बन सकता है 


"वर्तमान"


अभी रात जब आप सोएं, तो स्मरणपूर्वक यह खयाल लेकर सोएं कि जो बीत गया, वह बीत गया और इन तीन दिनों में मैं बीते हुए को बार-बार मन पर नहीं लौटने दूंगा। इन तीन दिनों में जो सामने होगा उसको जीऊंगा और जो बीत गया उसको छोड़ दूंगा। अगर इस विचारपूर्वक स्मरण के साथ आप सोए,सुबह आप और तरह से उठेंगे, जैसा कि आप रोज उठते रहे होंगे, उससे बिलकुल भिन्न उठेंगे। क्योंकि एक मन का बहुत अदभुत नियम है, हम जिस बात को लेकर सो जाते हैं, ठीक उसी बात पर सुबह जागना होता है। उससे भिन्न बात पर कोई कभी नहीं जागता। रात जिस चिंता को लेकर आप सो गए हैं, सुबह उसी चिंता पर आप वापस जाग जाएंगे। रात भर वह चिंता आपके मस्तिष्क के द्वार पर खड़ी प्रतीक्षा करेगी, जब आप जागेंगे, वह हाजिर हो जाएगी। रात्रि का अंतिम विचार सुबह का प्रथम विचार होता है। और आज रात्रि का अंतिम विचार भी यही हो कि मैं जो पीछे है उसे छोड़ता हूं। कम से कम तीन दिन के लिए मैं जो सतत वर्तमान है उसमें जीऊंगा, अतीत को बीच में नहीं लाऊंगा।


जो व्यक्ति अतीत को बीच में नहीं लाता चित्त के, उसका चित्त बहुत निर्मल और शांत हो जाता है। क्योंकि अशांति सब अतीत से आती है। तो वर्तमान में कोई भी अशांति नहीं होती। इस तत्व पर अभी हम और विचार करेंगे, तो समझ में आएगा कि तुम्हें कुछ थोड़े से सुझाव आपको दे रहा हूं। वर्तमान में वह जो प्रज्वलित मूवमेंट है, उसमें कोई अशांति नहीं होती। सब अशांति अतीत से संबंधित होती है या भविष्य से संबंधित होती है, वर्तमान में कभी कोई अशांत नहीं होता। आप खुद ही अपनी अशांति को देखेंगे, तो समझ जाएंगे। या तो वह बीती हुई होगी या आने वाली होगी। ठीक क्षण में मौजूद कोई अशांति नहीं होती।


अभी हम यहां बैठे हैं, अगर हमारा चित्त इसी क्षण में मौजूद हो जाए, कौन सी अशांति है? अगर हम इसी क्षण में जाग जाएं, कौन सी अशांति है? अगर किसी जादू से आपका सब अतीत पोंछ दिया जाए, तो कौन सी अशांति है?


जीवंत क्षण में कोई अशांति नहीं होती है। पिछला भार, अतीत का भार चित्त को अशांति देता है। और आने वाले दिन की कल्पना और योजना चित्त को अशांति देती है।


यहां तीन दिनों में, समझ लीजिए, न तो कोई अतीत है और न कोई भविष्य है। तीन दिन में बस ये तीन दिन के क्षण हैं, जो सामने क्षण आता है, वही है। इन तीन दिनों में इस भांति जीकर देखिए, एक बिलकुल नई दृष्टि जीवन के प्रति खुल जा सकती है। और एक बार यह खयाल में आ जाए कि जीवन पर जो भार है, जो टेंशन है, जो तनाव है, वह अतीत और भविष्य का है, तो मनुष्य को एक बिलकुल नया द्वार मिल जाता है खटखटाने का। और तब फिर वह रोज घड़ी दो घड़ी को सारे अतीत और सारे भविष्य से मुक्त हो सकता है। और खयाल रखिए, न तो अतीत की कोई सत्ता है, सिवाय स्मृति के और न भविष्य की कोई सत्ता है, सिवाय कल्पना के, जो है वह वर्तमान है। इसलिए कि किसी भी दिन परमात्मा को या सत्य को जानना हो, तो वर्तमान के सिवाय और कोई द्वार नहीं है। अतीत है नहीं, जा चुका; भविष्य है नहीं, अभी आया नहीं है,जो है एग्झिसटेंसियली, जिसकी सत्ता है, वह है वर्तमान। इसी क्षण में सामने मौजूद क्षण है वही। इस मौजूद क्षण में अगर मैं पूरी तरह मौजूद हो सकूं, तो शायद सत्ता में मेरा प्रवेश हो जाए। तो शायद जो सामने दरख्त खड़ा है, ऊपर तारे हैं, आकाश है, चारों तरफ लोग हैं, इन सबके प्राणों से मेरा संबंध हो जाए। उसी संबंध में मैं जानूंगा उसको भी जो मेरे भीतर है और उसको भी जो मेरे बाहर है।


इन तीन दिनों में अगर हमने थोड़ा सा भी समझपूर्वक जीने की कोशिश की--तो क्षण-क्षण में जीने की कोशिश करेंगे, यह मेरा पहला निवेदन है। जब भोजन कर रहे हों, तो सिर्फ भोजन करें। भोजन के पहले की बात भूल जाएं और साथ में भोजन करें। और सारा चित्त और सारे प्राण भोजन करने में ही तल्लीन हो जाएं। वे यहां-वहां डूबते हुए न हों। अभी तो यह होता है कि हम जब भोजन करते हैं, तब चित्त कहीं और होता है--घर में होता है, दुकान में होता है। जब दुकान में होते हैं, तब वह भोजन कर रहा होता है। जब बाजार में होते हैं, तब चित्त घर होता है, जब घर में होते हैं, तब बाजार में होता है। मतलब यह कि जहां हम होते हैं, वहां हम नहीं होते हैं। तो जीवन में एक विशृंखलता और एक खंडित, और यह खंडित स्थिति बड़ी खतरनाक है। कि जब हम सोते हैं तब चित्त दिन में जो उसने किया उसका स्मरण करता है, सपने देखता है। जो हम दिन में काम करते हैं, तो रात जो सपने अधूरे हैं, चित्त उन सपनों को पूरा करता है। चित्त पूरे वक्त अनुपस्थित है, एब्सेंट है जहां हम हैं, तो हमारा जीवन से संबंध कैसे होगा?


जब हम किसी को प्रेम कर रहे हैं, तब चित्त हमारा कहीं और है, तो जीवन में प्रेम कैसे होगा? और इसीलिए हम जीवन भर अनुभव करते हैं कि हम प्रेम चाहते हैं कि करें और हम चाहते हैं कि कोई हमें प्रेम दे, लेकिन न तो हम प्रेम कर पाते हैं और न कोई हमें प्रेम दे पाता है। प्रेम के लिए जरूरी है कि हम वर्तमान में हों। लेकिन जब हम प्रेम करते हैं तब चित्त कहीं और होता है। और जहां चित्त प्रेम करते वक्त होता है, जब हम वहां आ गए, तो चित्त वहां होता है जहां उसे प्रेम करते वक्त होना चाहिए था। ऐसे जीवन में सारी चीजें टूट गई हैं। हम कहीं हैं, चित्त कहीं है। जब हम प्रार्थना करते हैं, तब चित्त कहीं और है; जब हम व्यवसाय करते हैं, तब चित्त कहीं और है। हम किसी काम में भी ठीक-ठीक मौजूद नहीं हैं।


इन तीन दिनों में एक छोटा सा प्रयोग करें--कि जो भी काम कर रहे हैं उसमें पूरी तरह मौजूद हो जाएं। अभी रात को यहां से जाकर सोएं, तो पूरी तरह सोएं। पूरी तरह सोने का मतलब यह है कि सोते वक्त इस भांति सोएं कि सारा काम समाप्त हुआ। अब सिवाय सोने के और कोई भी काम नहीं है। अब मैं अपने पूरे प्राणों से सोने जा रहा हूं। और मेरे पूरे प्राण सिर्फ सोने भर के काम को करें और कोई भी काम नहीं है। उसी भांति सोएं। सुबह स्नान करें तो इस भांति स्नान करें कि स्नान करते वक्त आपका पूरा व्यक्तित्व स्नान कर रहा है, आपका चित्त कहीं और नहीं भागा जा रहा है। थोड़े ही दिन स्मरणपूर्वक अगर हम चित्त के साथ सजगता बरतें, तो बहुत कठिन नहीं है कि एक दिन वह घड़ी आ जाए कि हम जो काम कर रहे हों, उसमें हम पूरी तरह मौजूद हो जाएं। बुहारी लगा रहे हों, तो पूरी तरह मौजूद हो जाएं। और अगर बुहारी लगाते हुए भी कोई पूरी तरह मौजूद हो जाए, तो उसे बुहारी लगाने में वही आनंद उपलब्ध होगा, जो किसी बड़े से बड़े योगी को ध्यान करने में उपलब्ध हुआ है। कोई फर्क नहीं रह जाएगा। ध्यान का एक ही अर्थ है कि हम जो कर रहे हैं, उसमें हमारा चित्त पूरी तरह मौजूद है, पूरी तरह लीन है, उससे बाहर नहीं है। कोई भी छोटा काम।


अभी यहां से उठ कर आप कमरे की तरफ जाएंगे, तो चलेंगे रास्ते पर, तो इस भांति चलें कि चलने के सिवाय और कोई क्रिया आपके चित्त में नहीं हो रही, बस सिर्फ चल रहे हैं, चलना ही रह जाए और आप मिट जाएं। अगर चलना ही रह जाए और आप मिट जाएं, तो आपके कमरे तक जो सौ कदम उठाए जाएंगे, वे सौ कदम परमात्मा के निकट ले जाएंगे। और उन सौ कदमों में ही आपको पता चलेगा कि चित्त तो अपूर्व रूप से शांत हो गया है।


जीवन में चौबीस घंटे जो भी हम कर रहे हैं, उसके साथ इतनी आत्मलीनता, इतना आत्मसात हो जाना जरूरी है कि हम मिट जाएं और वही रह जाए जो हम कर रहे हैं। चाहे वह काम कितना ही छोटा क्यों न हो, बड़ा क्यों न हो। जो भी काम हो, उसमें हम डूब सकें पूरे। यह डूबना इन तीन दिनों में एक छोटा सा प्रयोग करें। और मैं कह रहा हूं, चौबीस घंटे जो भी आप कर रहे हैं उसमें उसका ध्यान रखें। इन तीन दिनों में ही एक बुनियादी फर्क अनुभव होगा। एक बात खयाल में आएगी।


आज रात सोने से ही शुरू कर दें। वह अभी दूर है, जब यहां से उठ कर जाएं, तभी शुरू कर दें। वह भी थोड़ा दूर है, अभी मुझे सुन रहे हैं, सुनने में ही शुरू कर दें। सुनते वक्त सिर्फ सुनने की क्रिया रह जाए, आप जिसे सिर्फ सुन रहे हैं और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। मात्र सुन रहे हैं, कान ही कान रह गए हैं और आप नहीं हैं। जैसे आप सिर्फ कान ही हैं जो सुन रहे हैं, आंख ही हैं जो सिर्फ देख रही हैं। अगर इस सुनने की क्रिया को भी इतनी शांति से और इतनी लीनता से सुनें, तो कुछ और सुनाई पड़ेगा। तब शायद वही सुनाई पड़ जाए जो मैं आपसे कह रहा हूं। लेकिन अगर इतनी लीनता नहीं है सुनते वक्त, तो आप वह नहीं सुनेंगे जो मैं कह रहा हूं, आप वही सुनेंगे जो आप सुनना चाहते हैं, सुन सकते हैं, पहले से सुने हुए हैं, पहले से सोचे हुए हैं। तब आप वही सुनेंगे, तब फिर वह नहीं सुन पाएंगे जो मैं आपसे कह रहा हूं। तो यहीं से शुरू कर दें और इन तीन दिनों एक छोटे सूत्र पर काम करें कि जो भी काम कर रहे हैं--उठ रहे हैं; बैठ रहे हैं; सो रहे हैं, उसमें पूरी तरह लीन हो जाएं।

ओशो 

प्रवचन - 3

साक्षी की साधना

गीता दर्शन ( अध्याय 11)

प्रवचन 11

नींद को अगर लाने की कोशिश करेंगे, तो नींद नही आयेगी।

अगर आप कोशिश कर करके छोड़ देंगे तो नींद आ जायेगी।

नींद गहन चीज है।

आपके हाथ में नही है।


परमात्मा और भी गहन है।

नींद तो प्रकृति है।

परमात्मा तो आपके हाथ में बिल्कुल नही है।

आपको समर्पण ही करना होगा जैसे आप नींद में खुद को छोड़ देते हैं,

ऐसे ही परमात्मा में खुद को छोड़ देना होगा।

डूब जाए, और कह दे कि 

अब तू ही है, मैं नही हूं।

जो करना हो उसके लिए_

 मैं राजी हूं।

गीता दर्शन ( अध्याय 11)

प्रवचन 12


एक मित्र ने पूछा है,

 कीर्तन संबंध में आप कहते हैं,

 धुन लगाएं, सम्मिलित हों।

तो क्या शरीर के बिना कीर्तन में सम्मिलित नहीं हुआ जा सकता?

क्या मन ही मन में कीर्तन

 नहीं किया जा सकता?


बराबर किया जा सकता है,

 लेकिन और किन-किन बातों में 

आप यह शर्त रखते हैं?

जब किसी को प्रेम करते हैं तो 

 मन ही मन में करते हैं ,

या शरीर को भी बीच में लाते हैं?

तब नहीं कह सकते कि प्रेम मन ही मन में नहीं किया जा सकता।

शरीर को क्यूं बीच में लाना?

कितनी चीजों में ख्याल रखते है इसका?

अगर बाकि सब चीजों में ख्याल रखते हों तो मैं राज़ी हूं।

बिल्कुल शरीर को उपयोग ना करे,

 कीर्तन भीतर ही भीतर हो जाएगा।

लेकिन अगर बाकी सब चीजों में शरीर को लाते हैं,

 तो धोखा मत दे अपने को।

 डर क्या है शरीर को कीर्तन में लाने में?

जब किसी को प्रेम करते हैं तो उसको गले लगा लेते हैं, तब क्यूं शरीर को बीच में लाते हैं?

हाथ हाथ में ले लेते हैं।

क्यों हाथ को बीच में ले आते हैं?

तब भी ऐसा दूर खड़े रहे बुद्ध की मूर्ति बने हुए ,

मन ही मन में। 

तब आपको लगेगा कि समय खो रहा है।

यह मन ही मन में कब तक करते रहेंगे?

आपका मन और आपका शरीर 

अभी दो नहीं हैं।

 अभी आपका मन और आपका शरीर एक है।

 अभी जल्दी मत करें।

अभी आपका मन आपके शरीर का ही दूसरा छोर है। वो शरीर से ही संचालित हो रहा है।

शरीर ही उसको अभी गति दे रहा है।

इसलिए उचित है कि कीर्तन में अभी शरीर को भी डूबने दें, तो ही आपका मन डूब पाएगा।

और जिस दिन आप मन ही मन में डुबाने में सफल हो जाएंगे तो मुझसे पूछने की कोई जरूरत नहीं रहेगी।

लेकिन जब तक ये नही हो सकता तब तक ये शरीर से ही शुरू करें।

आप शरीर में जी रहे हैं,

इसलिए आपकी सब यात्रा शरीर से ही शुरू होगी।

और जो सिखा देगा अपने को कि शरीर का क्या करना है, वो असल में धोखा दे रहा है।

वो धोखा ये दे रहा है कि वो करना ही नहीं चाहता।


आदमी वहीं से तो चल सकता है जहां खड़ा है।

जहां आप खड़े नहीं हैं, 

वहां से आप चलेंगे कैसे?

आपकी मन में स्तिथि क्या है?

अभी आपको शराब पिला दें, तो शराब तो शरीर में जाती है, मन में तो जाती नहीं। क्या आप समझते हैं कि आप होश में बने रहेंगे? आप बेहोश हो जायेंगे। क्यूं बेहोश हो गए आप? शराब तो शरीर में जाती है, कोई मन में तो जाती नहीं। आत्मा में तो घुस नही जाती शराब।

तब आपको पता चलेगा कि हर्ज का है मामला।


अभी आपको कोई धक्का मार दे ज़ोर से तो धक्का शरीर तक ही जाता है 

या मन तक चला जाता है?

मन तक चला जाता है।

सच तो ये है कि शरीर को बाद में पता चलता है,

मन को पहले पता चल जाता है।

तो अभी आपका मन और शरीर बहुत करीब करीब हैं। अभी दूरी नही है उस में।


जिन मित्र ने पूछा है,

शायद कारण ये है कि उन्हें बहुत डर है कि पास पड़ोस में कोई देख न ले।

कि अरे आप ताली बजा रहे है?

आनंदित हो रहे हैं?

आपको कोई रोते देखेगा तो कोई एतराज नहीं।

आप ज़रा मस्त हुए कि आपके आस पास के लोग परेशान हों जायेंगे।

और वो आपसे कहेंगे कि

 आपको क्या हो रहा है?

होश खो रहे है?

जैसे दुखी होना ही समझदारी है।

और मस्त होना नासमझी है।

ठीक भी है, दुखी लोगो के समाज में हो,

जो आदमी मस्त होगा, 

वो समाज से अलग जा रहा है।

और दूसरे लोगों में ईर्ष्या पैदा कर रहा है।

ईर्ष्या जब पैदा होती है तो दूसरे लोग उसकी निंदा करेंगे।

उसको कहेंगे कि तू पागल है।

वो जो मित्र को डर लग रहा है,

 वो पड़ोसियों का डर है।

कि कोई क्या कहेगा?

तो मन ही मन में करो।


अगर मन में करना है तो और सब चीजें भी मन में करना।

और अगर और सब चीजें शरीर से कर रहे हैं तो कीर्तन भी आपको शरीर से ही करना होगा।

आप जहां है, वहीं से यात्रा हो सकती है।

ओशो एक ध्यान विधी


"अपने नाम की ध्वनि में प्रवेश करो , और उस ध्वनि के द्वारा सभी ध्वनियों में।"


मन्त्र की तरह तुम्हारे नाम का उपयोग बहुत आसानी से किया जा सकता है . यह बहुत सहयोगी होगा , क्योंकि तुम्हारा नाम तुम्हारे अचेतन में बहुत गहरे उतर चुका है . दूसरी कोई भी चीज अचेतन की उस गहराई को नही छूती है . यह विधि कहती है : "अपने नाम की ध्वनि में प्रवेश करो , और उस ध्वनि के द्वारा सभी ध्वनियों में ." तुम अगर अपने भीतर अपने नाम का जाप तेजी से करो तो वह शब्द न रहकर ध्वनि में बदल जाएगा . तब वह एक अर्थहीन ध्वनि होगी . और तब राम और मरा में कोई भेद नहीं रहेगा . राम कहो या मरा , कोई फर्क नहीं पड़ता . वे अब शब्द नहीं रहे , वे बस ध्वनि हैं . और ध्वनि असली चीज है . तो अपने नाम की ध्वनि में प्रवेश करो , उसके अर्थ को भूल जाओ ; सिर्फ ध्वनि में प्रवेश करो . अर्थ मन की चीज है , ध्वनि शरीर की चीज है . अर्थ सिर में रहता है , ध्वनि सारे शरीर में फ़ैल जाती है . अर्थ को भूल ही जाओ , उसे एक अर्थहीन ध्वनि की तरह जपो . और उस ध्वनि के जरिये तुम सभी ध्वनियों में प्रवेश पा जाओगे . यह ध्वनि सब ध्वनियों के लिए द्वार बन जायेगी . सब ध्वनियों का अर्थ है जो सब है--सारा अस्तित्त्व।


                                      - ओशो"प्रेम संगीत"

कुछ भी ध्यान बन सकता है -


" स्वाद लेना "


हम खाते रहते है, हम खाए बगैर नहीं रह सकते। लेकिन हम बहुत बेहोशी में भोजन करते है—यंत्रवत। और अगर स्‍वाद न लिया जाए तो तुम सिर्फ पेट को भर रहे हो।


      तो धीरे-धीरे भोजन करो, स्‍वाद लेकिर करो और स्‍वाद के प्रति सजग रहो। और स्‍वाद के प्रति सजग होने के लिए धीरे-धीरे भोजन करना बहुत जरूरी है। तुम भोजन को बस निगलने मत जाओ। आहिस्‍ता-आहिस्‍ता उसका स्‍वाद लो और स्‍वाद ही बन जाओ। जब तुम मिठास अनुभव करो तो मिठास ही बन जाओ। और तब वह मिठास सिर्फ मुंह में नहीं, सिर्फ जीभ में नहीं, पूरे शरीर में अनुभव की जा सकती है। वह सचमुच पूरे शरीर में फैल जायेगी। तुम्‍हें लगेगा कि मिठास—या कोई भी चीज—लहर की तरह फैलती जा रही है। इसलिए तुम जो कुछ खाओ, उसे स्‍वाद लेकर खाओ और स्‍वाद ही बन जाओ।


      यहीं तंत्र दूसरी परंपराओं से सर्वथा भिन्‍न है। विपरीत मालूम पड़ता है। जैन अस्‍वाद की बात करते है। महात्‍मा गांधी ने तो अपने आश्रम में अस्‍वाद को एक नियम बना लिया था। नियम था कि खाओ स्‍वाद के लिए मत खाओ। स्‍वाद मत लो, स्‍वाद को भूल जाओ। वे कहते थे कि भोजन आवश्‍यक है, लेकिन यंत्रवत भोजन करो। स्‍वाद वासना है, स्‍वाद मत लो।


      तत्र कहता है कि जितना स्‍वाद ले सको उतना स्‍वाद लो। ज्‍यादा से ज्‍यादा संवेदनशील बनो, जीवंत बनो। इतना ही नहीं कि संवेदनशील बनो, स्‍वाद ही बन जाओ। अस्‍वाद से तुम्‍हारी इंद्रियाँ मर जाएंगी। उनकी संवेदनशीलता जाती रहेगी। और संवेदनशीलता के मिटने से तुम अपने शरीर को, अपने भावों को अनुभव करने में असमर्थ हो जाओगे। और तब फिर तुम अपने सिर के केंद्रित होकर रह जाओगे। और सिर में केंद्रित होना विभाजित होना है।


      तंत्र कहता है: अपने भीतर विभाजन मत पैदा करो। स्‍वाद लेना सुंदर है, संवेदनशील होना सुंदर है। और तुम जितने संवेदनशील होगे, उतने ही जीवंत होगे। और जितने तुम जीवंत होगे, उतना ही अधिक जीवन तुम्‍हारे अंतस में प्रविष्‍ट होगा। तुम अधिक खुलोगें। उन्‍मुक्‍त अनुभव करोगे।


ओशो 

तंत्र - सूत्र

साधारण चाय का आनंद

एक ध्यान विधी


क्षण-क्षण जीएं। तीन सप्ताह के लिए कोशिश करें कि जो भी आप कर रहे हैं, उसे जितनी समग्रता से कर सकें, करें। उसे प्रेम से करें और उसका आनंद लें। हो सकता है, यह मूर्खतापूर्ण लगे। यदि आप चाय पी रहे हैं, तो उसमें इतना आनंद लेना मूर्खतापूर्ण लगता है कि यह तो साधारण सी चाय है। लेकिन साधारण सी चाय भी असाधारण रूप से सौंदर्यपूर्ण हो सकती है, यदि हम उसका आनंद लें सकें तो वह एक गहन अनुभूति बन सकती है। गहन समादर से उसका आनंद लें उसे एक ध्यान बना लें- चाय बनाना, केतली की आवाज सुनना, फिर चाय उड़ेलना, उसकी सुगंध लेना, चाय का स्वाद लेना और ताजगी अनुभव करना।

मुर्दे चाय नहीं पी सकते। केवल अति-जीवंत व्यक्ति ही चाय पी सकते हैं। इस क्षण हम जीवित हैं! इस क्षण हम चाय का आनंद ले रहे हैं। धन्यवाद से भर जाएं और भविष्य की मत सोचें; अगला क्षण अपनी फिक्र खुद कर लेगा। कल की चिंता न लें- तीन सप्ताह के लिए वर्तमान में जीएं।

            - ओशो

           

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