गीता दर्शन
गीता दर्शन ( अध्याय 12)
प्रवचन 8
एक मित्र ने पूछा है कि,
यदि मनुष्य को अपनी सारी इच्छाएं ही छोड़नी हैं तो फिर,
जीवन का लक्ष्य क्या है?
शायद उनका ख्याल हो कि इच्छाओं को पूरा करना ही जीवन का लक्ष्य है।
इच्छाएं तो पूरी होती नहीं।
कोई इच्छा पूरी होती नहीं।
एक इच्छा पूरी होती है तो,
दस को पैदा कर जाती है।
और श्रृंखला शुरू हो जाती है।
जीवन का लक्ष्य इच्छाओं को,
पूरा करना नही है।
जीवन का लक्ष्य इच्छाओं के बीच से इच्छारहितता को उपलब्ध हो जाना है।
जीवन का लक्ष्य इच्छाओं से गुज़र के इच्छाओं के पार उठ जाना।
क्यूंकि जैसे ही कोई व्यक्ति सभी इच्छाओं के पार उठ जाता है वैसे ही उसे पता चलता है कि जीवन की परम धन्यता इच्छाओं में नही थी।
इच्छाओं से तो तनाव पैदा होता था, खिंचाव पैदा होता था।
इच्छाओं से तो मन दौड़ता था।
थकता था।
गिरता था। परेशान होता था।
इच्छा शून्यता से प्राणों का मिलन अस्तित्व से हो जाता है। क्यूंकि कोई दौड़ नही रह जाती। कोई भाग दौड़ नही रह जाती।
जैसे झील शांत हो जाएं
और कोई लहरें ना हों।
तो शांत झील में जैसे
चांद का प्रतिबिंब बन जाए।
ऐसा ही जब इच्छाओं की
कोई लहर नहीं होती।
और हृदय शांत झील हो जाता है।
तो जीवन का जो परम रहस्य है,
उसका प्रतिबिंब बनने लगता है।
आप दर्पण हो जाते हैं।
और जीवन का रहस्य,
आपके सामने खुल जाता है।
इच्छाओं के माध्यम से इच्छाओं शून्य
हो जाना जीवन का लक्ष्य है।
जल्दबाजी मत करना।
परिपक्वता जरूरी है।
इच्छाओं को पकने देना।
पूरे हृदयपूर्वक गुजरना ताकि
उनकी व्यर्थता समझ में आ जाए।
उनकी मूढ़ता भी समझ में आ जाए।
अपने अनुभव से इच्छाओं
की पीड़ा से पूरे गुजरना।
जीवन के अनुभव से बचिए मत।
जल्दी मत करिए।
अधकचरे अनुभव आपको
कही भी ना ले जाएंगे।
मोक्ष चाहिए तो संसार से
परिपक्वता जरूरी है।
Comments
Post a Comment